३ एप्रिल, २०१०

चढता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा

हुये नाम वै बेनिशां कैसे-कैसे
जमीं खा गई नौजवां कैसे-कैसे
आज जवानी पर इतराने वाले काल पछतायेगा
चढता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा
तु यहां मुसाफ़ीर है, ये सराय फ़ानी है
चार रोज की महेमां तेरी जिंदगानी है
जन-जनी, जर-जेवर कुछ ना साथ जायेगा
खाली हाथ आया है, खाली हाथ जायेगा
जान कर भी अनजाना बन रहा है दिवाने
अपनी उम्र फ़ानी पर, तन रहा है दिवाने
इस कदर तु खोया है, इस जहां के मेले में
तु खुदा को भुला है, फंस के इस झमेले में
आजतक ये देखा है, पानेवाला खोता है
जिंदगी को जो समझा, जिंदगी पे रोता है
मिटनेवाली दुनिया का ऎतबार करता है
क्या समझ के तु आखिर इससे प्यार करता है
अपनी-अपनी फिकरों में जो भी है वो उलझा है
जिंदगी हकिकत मे क्या है कौन समझा है
आज समझ ले, कल ये मौका हाथ न तेरे आयेगा
ओ गफ़लत की नींद में सोनेवाले धोका खायेगा
चढता सूरज धीरे-धीरे ढलता है, ढल जायेगा
मौत ने जमाने को, ये समां दिखा डाला
कैसे-कैसे रुस्तम को, खाक मे मिला डाला
याद रख सिकंदर के हौसले तो आली थे
जब गया था दुनिया से, दोनो हाथ खाली थे
अब ना वो हलाकु है, और न उसके साथी है
चंद जूं ओ पोरस है, और न उसके हाथी है
कल जो तन के चलते थे अपनी शानो शौकत पर
शम्मा तक नहीं जलती आज उनकी दुर्बत पर
अदना हो या आला हो, सबको लौट जाना है
मुफ़लिसों कवंदर का कब्र ही ठिकाना है
जैसी करनी-वैसी भरनी
आज किया कल पायेगा
सर को उठाकर चलनेवाला, इकदिन ठोकर खायेगा
चढता सूरज धीरे-धीरे ढलता है ढल जायेगा
मौत सबको आनी है, कौन इससे छुटा है
तु फ़ना नहिं होगा, ये खयाल झुठा है
सांस टुटते ही सब रिश्ते टुट जायेंगे
बाप, मां, बहन, बिबी, बच्चे छुट जायेंगे
तेरे जितने है भाई वक्त का चलन देंगे
छिन कर तेरी दौलत, दो ही गज कफ़न देंगे
जिनको अपना कहता है, कब ये तेरे साथी है
कब्र है तेरी मन्जिल और ये बाराती है
ला के कब्र में तुझको, मुर्दाबाद डालेंगे
अपने हाथों से तेरे मुंह पे खाक डालेंगे
तेरी सारी उल्फ़त को, खाक में मिला देंगे
तेरे चाहने वाले, कल तुझे भुला देंगे
इसलिये ये कहता हुं, खुब सोच ले दिलमें
क्यूं फसाये बैठा है, जान अपनी मुष्किल में
कर गुनाहों से तौबा आके बत संभल जाये
दम का क्या भरोसा है, जाने कब निकल जाये
मुठ्ठी बांध के आनेवाले हात पसारे जायेगा
धनदौलत जागिर से तुने क्या पाया क्या पायेगा
चढता सूरज धीरे-धीरे ढलता है ढल जायेगा
कव्वाल – अजिज नाजां

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